न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः।
न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम्॥12॥
न-नहीं; तु-लेकिन; एव-निश्चय ही; अहम्-मे; जातु-किसी समय में; न-नहीं; आसम्-था; न-नहीं; त्वम्-तुम; न-नहीं; इमे-ये सब; जन-अधिपा:-राजागण; न कभी नहीं; च-भी; एव-वास्तव में; न-नहीं; भविष्यामः-रहेंगे; सर्वे वयम्-हम सब; अतः-इसके; परम्-आगे।
BG 2.12: ऐसा कोई समय नहीं था कि जब मैं नहीं था या तुम नहीं थे और ये सभी राजा न रहे हों और ऐसा भी नहीं है कि भविष्य में हम सब नहीं रहेंगे।
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डेल्फी स्थित अपोलो मंदिर के द्वार पर 'ग्नोथी सीटन' अर्थात् 'स्वयं को जानो' शब्द उत्कीर्ण है। एथेंस के विद्वान सुकरात लोगों को अपने वास्तविक स्वरूप को खोजने की प्रेरणा देते। वहाँ की एक स्थानीय दन्तकथा इस प्रकार है कि एक बार सुकरात किसी मार्ग से जा रहे थे। अपने गहन दार्शनिक चिन्तन में मगन सुकरात जब अचानक किसी से टकराये तब वह व्यक्ति क्रोध में बड़बड़ाया, “तुम देख नहीं सकते कि तुम कहाँ चल रहे हो?, तुम कौन हो?" सुकरात परिहास करते हुए उत्तर देता है-“मेरे प्रिय मित्र, मैं गत चालीस वर्षों से इस प्रश्न का उत्तर ढूंढ रहा हूँ। यदि तुम्हें इसका उत्तर पता है कि "मैं कौन हूँ, तो कृपया मुझे बताओ।" वैदिक परम्परा में भी जब ईश्वरीय ज्ञान की शिक्षा दी जाती है तो प्रायः उसका प्रारम्भ आत्म-ज्ञान की शिक्षा से होता है। श्रीकृष्ण ने भगवद्गीता में भी इसी दृष्टिकोण को प्रकट किया है। उनका संदेश सुकरात के हृदय को भी छू लेता। श्रीकृष्ण अपने दिव्य उपदेश के प्रारम्भ में यह वर्णन कर रहे हैं कि जिस अस्तित्व को हम 'स्वयं' कहते हैं, वह आत्मा है न कि भौतिक शरीर और यह भगवान के समान नित्य है। श्वेताश्वतरोपनिषद् में वर्णन मिलता है।
ज्ञाज्ञौ द्वावजावीशनीशावजा ह्येका भोक्तृभोग्यार्थयुक्ता।
अनन्तश्चात्मा विश्वरूपो ह्यकर्तात्रयं यदा विन्दते ब्रह्ममेतत् ।।
(श्वेताश्वतरोपनिषद्-1.9)
उपर्युक्त श्लोक में यह वर्णन किया गया है कि सृष्टि की रचना तीन तत्त्वों के मिश्रण से हुई है-परमात्मा, आत्मा और माया। ये सभी तीनों तत्त्व नित्य हैं। अगर हम विश्वास करते हैं कि आत्मा अमर है तब यह मानना तर्कसंगत होगा कि भौतिक शरीर की मृत्यु के पश्चात् भी जीवन है। श्रीकृष्ण इसकी व्याख्या अगले श्लोक में करेंगे।